एक दिन उसने अपने एक काबिल शिष्य को अपने पास बुलाया और कहा, “मुझे लग रहा है कि मेरा आध्यात्मिक विकास नहीं हो पा रहा, मेरे अंदर कोई ना कोई रुकावट है जो मुझे अशांत रख रही है, मैं शांति प्राप्त नहीं कर पा रहा, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा, बेटा, तुम ऐसा करो पास वाले शहर में एक बहुत ही महान सिद्धपुरुष रहते हैं उनके पास जाओ और मेरा नाम लेकर उनसे पूछना कि मेरा आध्यात्मिक विकास क्यों रुका हुआ है।”
अपने गुरु GURU की आज्ञा अनुसार वह शिष्य सिद्धपुरुष से मिलने के लिए रवाना हो गया। शहर में जाकर उसने लोगों से उस सिद्ध पुरुष के बारे में पूछा तो उन्होंने एक बहुत बड़ी महलनुमा हवेली की तरफ इशारा कर दिया। हवेली को देख शिष्य दंग रह गया, उसे लोगों से पता चला कि वह सिद्धपुरुष शहर का बहुत बड़ा अमीर व्यापारी और जिमीदार है। उस हवेली के अंदर की दीवारों पर हीरे-जवाहरात जड़े हुए थे, जब सिद्धपुरुष को शिष्य ने बताया कि मुझे मेरे गुरु ने भेजा है तो सिद्धपुरुष ने उसका बहुत सम्मान किया। उसने शिष्य के साथ मेहमानों की तरह व्यवहार किया। शिष्य की खातिरदारी के लिए अलग-अलग स्वादिष्ट पकवान बनाए गए। ऐसे पकवानों को शिष्य ने आज तक कभी न देखा था और न कभी खाया था। हवेली में एक से बढ़कर एक मुलायम मखमली गद्दे, तकिए, आलीशान कालीन, नौकर-चाकर थे। अमीरी वाली इस जिंदगी में शिष्य के दो-तीन दिन कैसे बीत गए उसे पता ही नहीं चला। एक दिन उसे अपने गुरु का सवाल याद आया तो वह थोड़ा संभला। वो सिद्धपुरष के पास गया और बोला, ” मैं आपके पास अपने गुरु का एक प्रश्न लेकर आया हूं, मेरे गुरु ने आपसे पूछा है कि उनका आध्यात्मिक विकास क्यों रुका हुआ है, वो अंदर से अशांत क्यों हैं, उनकी इस परेशानी का क्या कारण है? शिष्य की बात सुनकर सिद्धपुरुष बोला, “लालसा, अपने गुरु से कहना कि लालसा का त्याग कर दे।”
सिद्ध पुरुष की बात सुनकर शिष्य को बहुत गुस्सा आया। उसने मन ही मन सोचा कि यह व्यक्ति भोग और विलासता से भरा जीवन व्यतीत कर रहा है और मेरे गुरु को लालसा में लिप्त बता रहा है!! मेरा गुरु तो त्यागी है, वो तो सारी मछलियां गरीबों में बांट देता है और अपने लिए सिर्फ एक मछली रखता है। शिष्य ने सिद्ध पुरुष को कुछ भी कहना गवारा ना समझा और अपने गुस्से को पी गया। सिद्धपुरष से आज्ञा लेकर शिष्य वापस अपने गांव की तरफ रवाना हो गया।
उसका गुरु (फकीर) बड़ी बेसब्री से उसका इंतजार कर रहा था, शिष्य के आते ही फकीर ने उससे पूछा कि सिद्धपुरुष ने तुम्हें मेरे सवाल का क्या उत्तर दिया।
शिष्य थोड़ा परेशान था कि मैं गुरु को क्या उत्तर दूँ? क्योंकि जो उत्तर सिद्धपुरुष ने उसे दिया था वह शिष्य को अच्छा नहीं लगा था।
फकीर ने फिर शिष्य को पूछा, “जल्दी बता सिद्धपुरुष ने मेरे सवाल का क्या उत्तर दिया?” शिष्य बताने लगा कि गुरुदेव आप उसे सिद्धपुरुष मत कहें, मुझे तो वह व्यक्ति भोग-विलासी लगा, उसमें भक्ति-त्याग का कोई लक्षण नजर नहीं आया, वह तो एक राजा की तरह अपने महल में विलासी जीवन जी रहा है, वो सिद्धपुरुष कहलाने के लायक नहीं है। फकीर अपने शिष्य की बात सुनकर फिर बोला, ” तू मुझे यह ना बता कि वह किस हालात में और कैसे रहता है, बस मुझे जल्दी यह बता कि उसने मेरे सवाल का क्या उत्तर दिया?
शिष्य बोला, “माफ करना गुरुदेव उसने जो उत्तर दिया है वह मुझे सही नहीं लगा।
फकीर बोला, “तुम्हें क्या सही लगता है क्या नहीं मुझे इससे कोई वास्ता नहीं है, तू मुझे क्यों नहीं बता रहा कि सिद्धपुरुष ने मेरे मेरे सवाल के उत्तर में क्या जवाब दिया?”
गुरु के बार-बार कहने पर शिष्य को बताना पड़ा। शिष्य बोला, ” गुरुदेव उस व्यक्ति ने जिसे आप सिद्धपुरुष बोल रहे हैं आपके सवाल के उत्तर में कहा है कि अपने गुरु को कहना कि लालसा छोड़ दें, उसकी लालसा ही उसके मार्ग की बाधा है। “
शिष्य ने यह सोचा कि गुरुदेव उत्तर सुनकर गुस्सा होंगे लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, लालसा वाली बात सुनकर वो फकीर मौन हो गया, उसने अपनी आंखें बंद कर ली, शिष्य ने अपने गुरु की आंखों से आंसू बहते हुए देखे।
कुछ समय मौन का वातावरण बना रहा। थोड़ी देर बाद फकीर अपने शिष्य को बोला,
“वो सिद्धपुरुष सच्चा फकीर है, वो सच में ईश्वर से जुड़ा हुआ है, वो अंतर्यामी है, बेटा तुम्हें उन्होंने जो उत्तर दिया है वह बिलकुल सत्य है, वो जानते हैं कि जब मैं गरीबों में मछलियां बांटता हूं तो जो मछली मैं अपने लिए रखता हूं वह सबसे बड़ी होती है, मेरी यही लालसा मेरे अध्यात्मिक विकास में बाधा बनी हुई है। वो महापुरष महलों में रहकर भी दुनियां के भोगों में लिप्त नहीं है। ऐसे वैरागी सिद्धपुरुष को मेरा प्रणाम।
फ़क़ीर का उत्तर सुन शिष्य मौन हो गया।
{ सार MORAL STORIES– यह कहानी हमें बहुत बड़ा संदेश दे रही है। आज व्यक्ति का मन MIND भोग-विलासों में लिप्त है, लेकिन जो व्यक्ति भोगों में रहकर भी मन से ईश्वर का ध्यान करता है वही सच्चा सिद्धपुरुष है। राजा जनक जी को भी ‘वैदेही’ कहा गया। वो राजा होते हुए भी भोग विलासों में लिप्त नहीं थे, ऐसे महापुरुष दुनियां में रहते हुए भी अपने मन को सदा ईश्वर में लगाए रखते हैं। आएं हम भी अपने मन को भोग-विलासों से हटाकर ईश्वर में लगाएं}
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Very inspiring story
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